मोहब्बत अदावत वफ़ा बे-रुख़ी
किराए के घर थे बदलते रहे
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सोए कहाँ थे आँखों ने तकिए भिगोए थे
कभी यूँ भी आ मिरी आँख में कि मिरी नज़र को ख़बर न हो
हयात आज भी कनीज़ है हुज़ूर-ए-जब्र में
चाँद सा मिस्रा अकेला है मिरे काग़ज़ पर
भीगी हुई आँखों का ये मंज़र न मिलेगा
ग़ज़लों का हुनर अपनी आँखों को सिखाएँगे
फूलों में ग़ज़ल रखना ये रात की रानी है
तुम मोहब्बत को खेल कहते हो
पत्थर मुझे कहता है मिरा चाहने वाला
अजीब शख़्स है नाराज़ हो के हँसता है
लोग टूट जाते हैं एक घर बनाने में
उस की आँखों को ग़ौर से देखो