अजब सी आग थी जलता रहा बदन सारा
तमाम उम्र वो होंटों पे बन के प्यास रहा
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तज़्किरे में तिरे इक नाम को यूँ जोड़ दिया
शहर-ए-फ़स्ल-ए-गुल से चल कर पत्थरों के दरमियाँ
आगही कर्ब वफ़ा सब्र तमन्ना एहसास
मैं जितनी देर तिरी याद में उदास रहा
लोगो हम छान चुके जा के समुंदर सारे
अब के जुनूँ में लज़्ज़त-ए-आज़ार भी नहीं
मिरे बदन में छुपी आग को हवा देगा
पहले हम ने घर बना कर फ़ासले पैदा किए
चले भी आओ कि ये डूबता हुआ सूरज
हम तेरे पास आ के परेशान हैं बहुत