निगाह-ए-शोख़ जब उस से लड़ी है

निगाह-ए-शोख़ जब उस से लड़ी है

तो बिजली थरथरा कर गिर पड़ी है

उसे भी मुझ को भी ज़िद आ पड़ी है

ख़राबी बीच वालों की बड़ी है

क़यामत में क़यामत कर गया कौन

कि दिल थामे सफ़-ए-महशर खड़ी है

करें क्या रिंद तौबा मय से ज़ाहिद

कि ये तो उन की घुट्टी में पड़ी है

क़दम जमता नहीं तेरी गली में

किसी बेताब की मय्यत गड़ी है

अदू भी तंग है उन के सितम से

उसे अपनी मुझे अपनी पड़ी है

अभी मैं ने किया था याद उस को

वो आया उम्र क़ासिद की बड़ी है

बना है मुद्दई पैग़ाम-बर भी

जड़ी है जब मिरी खूटी जड़ी है

किया है मैं ने ज़ब्त-ए-आह जिस दम

अनी बरछी की सीने में गड़ी है

गुल-ए-बिस्तर सितारे बन गए हैं

तिरे माथे से जब अफ़्शाँ झड़ी है

ये कहता है मिरा शौक़-ए-शहादत

तिरी तलवार फूलों की छड़ी है

वो रूठें ग़ैर से तो हम मनाएँ

पराई आफ़त अपने सर पड़ी है

तुझे देता हूँ अपनी जान भी मैं

मिरे दिल से मिरी हिम्मत बड़ी है

टलें वो कब जो दिल लेने पे अड़ जाएँ

ये क्या कुछ खेल चौसर की अड़ी है

इलाही कब सहर होगी शब-ए-हिज्र

क़यामत की घड़ी है जो घड़ी है

बिगड़ कर हम ने सौ इल्ज़ाम पाए

अब उन की हर तरह से बन पड़ी है

ग़ज़ल इक और भी ऐ 'दाग़' लिक्खो

तबीअत इस ज़मीं में कुछ लड़ी है

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