समझो पत्थर की तुम लकीर उसे
जो हमारी ज़बान से निकला
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डरता हूँ देख कर दिल-ए-बे-आरज़ू को मैं
ख़ातिर से या लिहाज़ से मैं मान तो गया
इस नहीं का कोई इलाज नहीं
दिल परेशान हुआ जाता है
न जाना कि दुनिया से जाता है कोई
ये मज़ा था दिल-लगी का कि बराबर आग लगती
ईद है क़त्ल मिरा अहल-ए-तमाशा के लिए
निगाह-ए-शोख़ जब उस से लड़ी है
भवें तनती हैं ख़ंजर हाथ में है तन के बैठे हैं
मुझे ऐ अहल-ए-काबा याद क्या मय-ख़ाना आता है
उन की फ़रमाइश नई दिन रात है
फ़लक देता है जिन को ऐश उन को ग़म भी होते हैं