ब-जुज़ उस के 'एहसान' को क्या समझिए
बहारों में खोया हुआ इक शराबी
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यास में बेदारी-ए-एहसास का आलम न पूछ
नज़र फ़रेब-ए-क़ज़ा खा गई तो क्या होगा
जबीं की धूल जिगर की जलन छुपाएगा
'एहसान' अपना कोई बुरे वक़्त का नहीं
कभी कभी जो वो ग़ुर्बत-कदे में आए हैं
वफ़ाएँ कर के जफ़ाओं का ग़म उठाए जा
बना देंगी दुनिया को इक दिन शराबी
यूँ उस पे मिरी अर्ज़-ए-तमन्ना का असर था
हम-नशीं उफ़ इख़्तिताम-ए-बज़्म-ए-मय-नोशी न पूछ
हम हक़ीक़त हैं तो तस्लीम न करने का सबब
मुफ़्लिसी के वक़्त अक्सर इशरत-ए-रफ़्ता की याद
हुस्न को दुनिया की आँखों से न देख