'एहसान' ऐसा तल्ख़ जवाब-ए-वफ़ा मिला
हम इस के बाद फिर कोई अरमाँ न कर सके
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अपनी रुस्वाई का एहसास तो अब कुछ भी नहीं
मक़्सद-ए-ज़ीस्त ग़म-ए-इश्क़ है सहरा हो कि शहर
मैं हैराँ हूँ कि क्यूँ उस से हुई थी दोस्ती अपनी
तुम सादा-मिज़ाजी से मिटे फिरते हो जिस पर
इश्क़ की दुनिया में इक हंगामा बरपा कर दिया
जब कोई जुगनू चमकता है अँधेरी रात में
हाँ आप को देखा था मोहब्बत से हमीं ने
ख़ाक से सैंकड़ों उगे ख़ुर्शीद
देहली का इक रईस ब-हंगाम-ए-जाँ-कनी
हुस्न को दुनिया की आँखों से न देख
इश्क़ को तक़लीद से आज़ाद कर
लोग यूँ देख के हँस देते हैं