'एहसान' अपना कोई बुरे वक़्त का नहीं
अहबाब बेवफ़ा हैं ख़ुदा बे-नियाज़ है
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चूम कर उस बुत की पेशानी को पछताना पड़ा
उट्ठा जो अब्र दिल की उमंगें चमक उठीं
दोपहर मैदान गर्मी हब्स अब्र-ए-बे-मता
यूँ उस पे मिरी अर्ज़-ए-तमन्ना का असर था
ख़ाक से सैंकड़ों उगे ख़ुर्शीद
रो रहा था गोद में अम्माँ की इक तिफ़्ल-ए-हसीं
सुनता हूँ सुरंगों थे फ़रिश्ते मिरे हुज़ूर
यास में बेदारी-ए-एहसास का आलम न पूछ
हम चटानें हैं कोई रेत के साहिल तो नहीं
बख़्श दी हाल-ए-ज़बूँ ने जल्वा-सामानी मुझे
दमक रहा है जो नस नस की तिश्नगी से बदन
कुछ लोग जो सवार हैं काग़ज़ की नाव पर