फ़ुसून-ए-शेर से हम उस मह-ए-गुरेज़ाँ को
ख़लाओं से सर-ए-काग़ज़ उतार लाए हैं
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'एहसान' ऐसा तल्ख़ जवाब-ए-वफ़ा मिला
किसे ख़बर थी कि ये दौर-ए-ख़ुद-ग़रज़ इक दिन
ये कौन हँस के सेहन-ए-चमन से गुज़र गया
हुस्न को दुनिया की आँखों से न देख
कभी कभी जो वो ग़ुर्बत-कदे में आए हैं
जब भी ख़ल्वत में वो याद आएगा
ये उड़ी उड़ी सी रंगत ये खुले खुले से गेसू
बला से कुछ हो हम 'एहसान' अपनी ख़ू न छोड़ेंगे
रहे जो ज़िंदगी में ज़िंदगी का आसरा हो कर
आज उस ने हँस के यूँ पूछा मिज़ाज
अब कहो कारवाँ किधर को चले
मेंह बरस कर थम गया है फट गए अब्र-ए-सियाह