कौन देता है मोहब्बत को परस्तिश का मक़ाम
तुम ये इंसाफ़ से सोचो तो दुआ दो हम को
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कभी कभी जो वो ग़ुर्बत-कदे में आए हैं
कल रात कुछ अजीब समाँ ग़म-कदे में था
रो रहा था गोद में अम्माँ की इक तिफ़्ल-ए-हसीं
दमक रहा है जो नस नस की तिश्नगी से बदन
बला से कुछ हो हम 'एहसान' अपनी ख़ू न छोड़ेंगे
रहता नहीं इंसान तो मिट जाता है ग़म भी
ये उड़ी उड़ी सी रंगत ये खुले खुले से गेसू
यास में बेदारी-ए-एहसास का आलम न पूछ
अपनी रुस्वाई का एहसास तो अब कुछ भी नहीं
इश्क़ को तक़लीद से आज़ाद कर
मैं हैराँ हूँ कि क्यूँ उस से हुई थी दोस्ती अपनी
शोरिश-ए-इश्क़ में है हुस्न बराबर का शरीक