ख़ाक से सैंकड़ों उगे ख़ुर्शीद
है अंधेरा मगर चराग़-तले
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चूम कर उस बुत की पेशानी को पछताना पड़ा
ब-जुज़ उस के 'एहसान' को क्या समझिए
मौसम से रंग-ओ-बू हैं ख़फ़ा देखते चलो
अब कहो कारवाँ किधर को चले
किस किस की ज़बाँ रोकने जाऊँ तिरी ख़ातिर
अपनी रुस्वाई का एहसास तो अब कुछ भी नहीं
सता लो मुझे ज़िंदगी में सता लो
शोरिश-ए-इश्क़ में है हुस्न बराबर का शरीक
उट्ठा जो अब्र दिल की उमंगें चमक उठीं
सोज़-ए-जुनूँ को दिल की ग़िज़ा कर दिया गया
रेल ने सीटी बजाई 'शोर' ओ 'दामन' चल दिए
मरने वाले फ़ना भी पर्दा है