मरने वाले फ़ना भी पर्दा है
उठ सके गर तो ये हिजाब उठा
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गदा हूँ मुझ को लेकिन दौलत-ए-कौनैन हासिल है
नज़र फ़रेब-ए-क़ज़ा खा गई तो क्या होगा
लोग यूँ देख के हँस देते हैं
मिरे मिटाने की तदबीर थी हिजाब न था
जीने के लिए जो मर रहे हैं
मैं हैराँ हूँ कि क्यूँ उस से हुई थी दोस्ती अपनी
जो ले के उन की तमन्ना के ख़्वाब निकलेगा
इश्क़ को तक़लीद से आज़ाद कर
शोरिश-ए-इश्क़ में है हुस्न बराबर का शरीक
भूरे भूरे बादलों से आसमाँ लबरेज़ है
वफ़ा का अहद था दिल को सँभालने के लिए
उट्ठा जो अब्र दिल की उमंगें चमक उठीं