न जाने मोहब्बत का अंजाम क्या है
मैं अब हर तसल्ली से घबरा रहा हूँ
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उट्ठा जो अब्र दिल की उमंगें चमक उठीं
मरने वाले फ़ना भी पर्दा है
अपनी रुस्वाई का एहसास तो अब कुछ भी नहीं
शोरिश-ए-इश्क़ में है हुस्न बराबर का शरीक
फ़ुसून-ए-शेर से हम उस मह-ए-गुरेज़ाँ को
बना देंगी दुनिया को इक दिन शराबी
गर्मियाँ हब्स रात तारीकी
अब कहो कारवाँ किधर को चले
ज़ब्त भी सब्र भी इम्कान में सब कुछ है मगर
मक़्सद-ए-ज़ीस्त ग़म-ए-इश्क़ है सहरा हो कि शहर
मैं हैराँ हूँ कि क्यूँ उस से हुई थी दोस्ती अपनी
तौबा की नाज़िशों पे सितम ढा के पी गया