वफ़ा का अहद था दिल को सँभालने के लिए
वो हँस पड़े मुझे मुश्किल में डालने के लिए
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रो रहा था गोद में अम्माँ की इक तिफ़्ल-ए-हसीं
जब किसी की याद आ कर तिलमिला जाता है दिल
किसे ख़बर थी कि ये दौर-ए-ख़ुद-ग़रज़ इक दिन
दोपहर होने को है सन्ना गया जंगल तमाम
जब कोई जुगनू चमकता है अँधेरी रात में
ब-जुज़ उस के 'एहसान' को क्या समझिए
रात है बरसात है मस्जिद में रौशन है चराग़
यूँ न मिल मुझ से ख़फ़ा हो जैसे
न सियो होंट न ख़्वाबों में सदा दो हम को
हंगामा-ए-ख़ुदी से तू बे-नियाज़ हो जा
कभी कभी जो वो ग़ुर्बत-कदे में आए हैं
हुस्न को दुनिया की आँखों से न देख