उट्ठा जो अब्र दिल की उमंगें चमक उठीं
लहराईं बिजलियाँ तो मैं लहरा के पी गया
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पढ़ रही हैं रात की ख़ामोशियाँ अफ़्सून-ए-ख़्वाब
जब कोई जुगनू चमकता है अँधेरी रात में
रानाई-ए-कौनैन से बे-ज़ार हमीं थे
सोज़-ए-जुनूँ को दिल की ग़िज़ा कर दिया गया
बला से कुछ हो हम 'एहसान' अपनी ख़ू न छोड़ेंगे
यूँ न मिल मुझ से ख़फ़ा हो जैसे
दमक रहा है जो नस नस की तिश्नगी से बदन
जब भी ख़ल्वत में वो याद आएगा
अपनी रुस्वाई का एहसास तो अब कुछ भी नहीं
इश्क़ को तक़लीद से आज़ाद कर
रो रहा था गोद में अम्माँ की इक तिफ़्ल-ए-हसीं
मुफ़्लिसी के वक़्त अक्सर इशरत-ए-रफ़्ता की याद