तुम सादा-मिज़ाजी से मिटे फिरते हो जिस पर
वो शख़्स तो दुनिया में किसी का भी नहीं है
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'एहसान' अपना कोई बुरे वक़्त का नहीं
हुस्न को दुनिया की आँखों से न देख
लोग यूँ देख के हँस देते हैं
नज़र फ़रेब-ए-क़ज़ा खा गई तो क्या होगा
हौज़ में गिर पड़ा गुलाब का फूल
जब भी ख़ल्वत में वो याद आएगा
ब-जुज़ उस के 'एहसान' को क्या समझिए
जबीं की धूल जिगर की जलन छुपाएगा
जब कोई जुगनू चमकता है अँधेरी रात में
किसे ख़बर थी कि ये दौर-ए-ख़ुद-ग़रज़ इक दिन
हंगामा-ए-ख़ुदी से तू बे-नियाज़ हो जा
आज उस ने हँस के यूँ पूछा मिज़ाज