ये उड़ी उड़ी सी रंगत ये खुले खुले से गेसू
तिरी सुब्ह कह रही है तिरी रात का फ़साना
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तौबा की नाज़िशों पे सितम ढा के पी गया
लोग यूँ देख के हँस देते हैं
नज़र फ़रेब-ए-क़ज़ा खा गई तो क्या होगा
देहली का इक रईस ब-हंगाम-ए-जाँ-कनी
अब कहो कारवाँ किधर को चले
हुस्न को दुनिया की आँखों से न देख
हम चटानें हैं कोई रेत के साहिल तो नहीं
हाँ आप को देखा था मोहब्बत से हमीं ने
वफ़ाएँ कर के जफ़ाओं का ग़म उठाए जा
जो ले के उन की तमन्ना के ख़्वाब निकलेगा
कुछ अपने साज़-ए-नफ़स की न क़द्र की तू ने
रो रहा था गोद में अम्माँ की इक तिफ़्ल-ए-हसीं