ये उजालों के जज़ीरे ये सराबों के दयार
सेहर-ओ-अफ़्सूँ के सिवा जश्न-ए-तरब कुछ भी नहीं
Wasi Shah
Habib Jalib
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Gulzar
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दमक रहा है जो नस नस की तिश्नगी से बदन
यूँ न मिल मुझ से ख़फ़ा हो जैसे
रंग-ए-तहज़ीब-ओ-तमद्दुन के शनासा हम भी हैं
भूरे भूरे बादलों से आसमाँ लबरेज़ है
कौन देता है मोहब्बत को परस्तिश का मक़ाम
मिरे मिटाने की तदबीर थी हिजाब न था
न सियो होंट न ख़्वाबों में सदा दो हम को
गदा हूँ मुझ को लेकिन दौलत-ए-कौनैन हासिल है
मौसम से रंग-ओ-बू हैं ख़फ़ा देखते चलो
वफ़ा का अहद था दिल को सँभालने के लिए
आज भड़की रग-ए-वहशत तिरे दीवानों की
कल रात कुछ अजीब समाँ ग़म-कदे में था