आसमाँ पर हैं ख़िरामाँ अब्र-पारों के हुजूम
इस तरह खुल खुल के छुपती है जबीन-ए-आफ़्ताब
जिस तरह हमसायों की आमद से हंगाम-ए-सहर
घर में शर्मीली नई दुल्हन का अंदाज़-ए-नक़ाब
Faiz Ahmad Faiz
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'एहसान' अपना कोई बुरे वक़्त का नहीं
रहता नहीं इंसान तो मिट जाता है ग़म भी
रानाई-ए-कौनैन से बे-ज़ार हमीं थे
मुफ़्लिसी के वक़्त अक्सर इशरत-ए-रफ़्ता की याद
हंगामा-ए-ख़ुदी से तू बे-नियाज़ हो जा
मिरे मिटाने की तदबीर थी हिजाब न था
वफ़ाएँ कर के जफ़ाओं का ग़म उठाए जा
कुछ अपने साज़-ए-नफ़स की न क़द्र की तू ने
कभी कभी जो वो ग़ुर्बत-कदे में आए हैं
दिल की शगुफ़्तगी के साथ राहत-ए-मय-कदा गई
बना देंगी दुनिया को इक दिन शराबी
तौबा की नाज़िशों पे सितम ढा के पी गया