बैठे बैठे इन की महफ़िल याद आ जाती है जब
देखती है ये समाँ तख़्ईल की ऊँची निगाह
जैसे थोड़ी देर नन्ही बूंदियाँ पड़ने के ब'अद
चर्ख़ पर ख़ाली सिमटते फैलते अब्र-ए-सियाह
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बैठे बैठे उन की महफ़िल याद आ जाती है जब
मक़्सद-ए-ज़ीस्त ग़म-ए-इश्क़ है सहरा हो कि शहर
और कुछ देर सितारो ठहरो
यास में बेदारी-ए-एहसास का आलम न पूछ
जीने के लिए जो मर रहे हैं
जब रुख़-ए-हुस्न से नक़ाब उठा
लोग यूँ देख के हँस देते हैं
हम हक़ीक़त हैं तो तस्लीम न करने का सबब
ये उड़ी उड़ी सी रंगत ये खुले खुले से गेसू
किस किस की ज़बाँ रोकने जाऊँ तिरी ख़ातिर
हम-नशीं उफ़ इख़्तिताम-ए-बज़्म-ए-मय-नोशी न पूछ
दमक रहा है जो नस नस की तिश्नगी से बदन