दोपहर मैदान गर्मी हब्स अब्र-ए-बे-मता
सर-निगूँ है ख़ार-ओ-ख़स पर इक गुल-ए-फ़ीरोज़ा-फ़ाम
नादिम ओ बे-माया महज़ूँ मुज़्महिल अंदोह-गीं
जैसे इक बे-रहम ओ बे-इंसाफ़ आक़ा का ग़ुलाम
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इश्क़ को तक़लीद से आज़ाद कर
रहता नहीं इंसान तो मिट जाता है ग़म भी
शोरिश-ए-इश्क़ में है हुस्न बराबर का शरीक
जब किसी की याद आ कर तिलमिला जाता है दिल
यूँ उस पे मिरी अर्ज़-ए-तमन्ना का असर था
रेल ने सीटी बजाई 'शोर' ओ 'दामन' चल दिए
दिल की शगुफ़्तगी के साथ राहत-ए-मय-कदा गई
मैं हैराँ हूँ कि क्यूँ उस से हुई थी दोस्ती अपनी
न सियो होंट न ख़्वाबों में सदा दो हम को
गर्मियाँ हब्स रात तारीकी
हाँ आप को देखा था मोहब्बत से हमीं ने
उट्ठा जो अब्र दिल की उमंगें चमक उठीं