गदा हूँ मुझ को लेकिन दौलत-ए-कौनैन हासिल है
वो आएँ घर मिरे तक़दीर थी ऐसी कहाँ मेरी
मैं उन को देख कर 'एहसान' ये महसूस करता हूँ
कि जैसे मिल रही हो मुझ को उम्र-ए-राएगाँ मेरी
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लोग यूँ देख के हँस देते हैं
यूँ उस पे मिरी अर्ज़-ए-तमन्ना का असर था
जब किसी की याद आ कर तिलमिला जाता है दिल
बख़्श दी हाल-ए-ज़बूँ ने जल्वा-सामानी मुझे
गर्मियाँ हब्स रात तारीकी
ब-जुज़ उस के 'एहसान' को क्या समझिए
जब कोई जुगनू चमकता है अँधेरी रात में
ख़ाक से सैंकड़ों उगे ख़ुर्शीद
जो ले के उन की तमन्ना के ख़्वाब निकलेगा
कभी कभी जो वो ग़ुर्बत-कदे में आए हैं
भूरे भूरे बादलों से आसमाँ लबरेज़ है
दोपहर मैदान गर्मी हब्स अब्र-ए-बे-मता