मुफ़्लिसी के वक़्त अक्सर इशरत-ए-रफ़्ता की याद
यूँ दिखाती है झलक आईना-ए-इदराक पर
दोपहर में जिस तरह दरिया से मैदाँ की तरफ़
चलते फिरते अब्र के टुकड़ों का साया ख़ाक पर
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लोग यूँ देख के हँस देते हैं
जब भी ख़ल्वत में वो याद आएगा
'एहसान' अपना कोई बुरे वक़्त का नहीं
दमक रहा है जो नस नस की तिश्नगी से बदन
सता लो मुझे ज़िंदगी में सता लो
कभी कभी जो वो ग़ुर्बत-कदे में आए हैं
ये कौन हँस के सेहन-ए-चमन से गुज़र गया
रेल ने सीटी बजाई 'शोर' ओ 'दामन' चल दिए
जीने के लिए जो मर रहे हैं
गर्मियाँ हब्स रात तारीकी
कुछ लोग जो सवार हैं काग़ज़ की नाव पर
आया नहीं है राह पे चर्ख़-ए-कुहन अभी