मुफ़्लिसी और इस में घर पर हम-नशीनों का हुजूम
तीरगी में यास की धुँदला गया हुस्न-ए-उमीद
इस तरह है दिल पे इक अफ़्सुर्दगी छाई हुई
जिस तरह परदेस में बे-कार मज़दूरों की ईद
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सोज़-ए-जुनूँ को दिल की ग़िज़ा कर दिया गया
ब-जुज़ उस के 'एहसान' को क्या समझिए
दमक रहा है जो नस नस की तिश्नगी से बदन
मौसम से रंग-ओ-बू हैं ख़फ़ा देखते चलो
मुफ़्लिसी के वक़्त अक्सर इशरत-ए-रफ़्ता की याद
परस्तिश-ए-ग़म का शुक्रिया क्या तुझे आगही नहीं
गर्मियाँ हब्स रात तारीकी
अपनी रुस्वाई का एहसास तो अब कुछ भी नहीं
दिल की शगुफ़्तगी के साथ राहत-ए-मय-कदा गई
किस किस की ज़बाँ रोकने जाऊँ तिरी ख़ातिर
जब कोई जुगनू चमकता है अँधेरी रात में
तुम सादा-मिज़ाजी से मिटे फिरते हो जिस पर