मेंह बरस कर थम गया है फट गए अब्र-ए-सियाह
टहनियाँ हिल कर हवा से गिर रही हैं बूंदियाँ
जिस तरह याद-ए-वतन में डूबते सूरज के वक़्त
क़ैद-ख़ाने में नए क़ैदी के अश्कों का समाँ
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परस्तिश-ए-ग़म का शुक्रिया क्या तुझे आगही नहीं
रहता नहीं इंसान तो मिट जाता है ग़म भी
फ़ुसून-ए-शेर से हम उस मह-ए-गुरेज़ाँ को
हवा के सय्याल बाज़ुओं पर घटा के शब-रंग कारवाँ हैं
आसमाँ पर हैं ख़िरामाँ अब्र-पारों के हुजूम
सुनता हूँ सुरंगों थे फ़रिश्ते मिरे हुज़ूर
उट्ठा जो अब्र दिल की उमंगें चमक उठीं
रेल ने सीटी बजाई 'शोर' ओ 'दामन' चल दिए
दमक रहा है जो नस नस की तिश्नगी से बदन
तौबा की नाज़िशों पे सितम ढा के पी गया
रात है बरसात है मस्जिद में रौशन है चराग़
कुछ अपने साज़-ए-नफ़स की न क़द्र की तू ने