रात है बरसात है मस्जिद में रौशन है चराग़
पड़ रही है रौशनी भीगी हुई दीवार पर
जैसे इक बेवा के आँसू डूबते सूरज के वक़्त
थम गए हों बहते बहते चम्पई रुख़्सार पर
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रहे जो ज़िंदगी में ज़िंदगी का आसरा हो कर
सुनता हूँ सुरंगों थे फ़रिश्ते मिरे हुज़ूर
कुछ लोग जो सवार हैं काग़ज़ की नाव पर
इश्क़ की दुनिया में इक हंगामा बरपा कर दिया
उट्ठा जो अब्र दिल की उमंगें चमक उठीं
शाम और रस्ते में रेवड़ के गुज़रने से ग़ुबार
न जाने मोहब्बत का अंजाम क्या है
नज़र फ़रेब-ए-क़ज़ा खा गई तो क्या होगा
आया नहीं है राह पे चर्ख़-ए-कुहन अभी
अब कहो कारवाँ किधर को चले
कुछ अपने साज़-ए-नफ़स की न क़द्र की तू ने