शाम और रस्ते में रेवड़ के गुज़रने से ग़ुबार
झुटपुटे में ज़र्रा ज़र्रा आँख झपकाता हुआ
जंगलों में मुंतज़िर ख़ामोशियाँ छाई हुई
जैसे कोई थम गया हो रागनी गाता हुआ
Ahmad Faraz
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बला से कुछ हो हम 'एहसान' अपनी ख़ू न छोड़ेंगे
लोग यूँ देख के हँस देते हैं
ये कौन हँस के सेहन-ए-चमन से गुज़र गया
हवा के सय्याल बाज़ुओं पर घटा के शब-रंग कारवाँ हैं
आसमाँ पर हैं ख़िरामाँ अब्र-पारों के हुजूम
इस तरह आते हैं अंजाम-ए-मोहब्बत के ख़याल
गदा हूँ मुझ को लेकिन दौलत-ए-कौनैन हासिल है
तौबा की नाज़िशों पे सितम ढा के पी गया
और कुछ देर सितारो ठहरो
देहली का इक रईस ब-हंगाम-ए-जाँ-कनी
कौन देता है मोहब्बत को परस्तिश का मक़ाम
यास में बेदारी-ए-एहसास का आलम न पूछ