रो रहा था गोद में अम्माँ की इक तिफ़्ल-ए-हसीं
इस तरह पलकों पे आँसू हो रहे थे बे-क़रार
जैसे दीवाली की शब हल्की हवा के सामने
गाँव की नीची मुंडेरों पर चराग़ों की क़तार
Faiz Ahmad Faiz
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अब कहो कारवाँ किधर को चले
जीने के लिए जो मर रहे हैं
ये उजालों के जज़ीरे ये सराबों के दयार
शोरिश-ए-इश्क़ में है हुस्न बराबर का शरीक
हम हक़ीक़त हैं तो तस्लीम न करने का सबब
हुस्न को दुनिया की आँखों से न देख
ये उड़ी उड़ी सी रंगत ये खुले खुले से गेसू
जबीं की धूल जिगर की जलन छुपाएगा
जब भी ख़ल्वत में वो याद आएगा
नज़र फ़रेब-ए-क़ज़ा खा गई तो क्या होगा
बैठे बैठे उन की महफ़िल याद आ जाती है जब