मंज़िल न मिली तो ग़म नहीं है
अपने को तो खो के पा गया हूँ
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तुझे पसंद जो दिल की लगन नहीं आई
गया था बज़्म-ए-मोहब्बत में ख़ाली जाम लिए
उन आँखों को नज़र क्या आ गया है
बीमारी की ख़बर
देख कर जादा-ए-हस्ती पे सुबुक-गाम मुझे
कुछ मिरे शौक़ ने दर-पर्दा कहा हो जैसे
तेरा ही हो के जो रह जाऊँ तो फिर क्या होगा
वादी-ए-शब में उजालों का गुज़र हो कैसे
दिल ने चुपके से कहा कोशिश-ए-नाकाम के बाद
अक़्ल पहुँची जो रिवायात के काशाने तक
ग़म में इक मौज सरख़ुशी की है