जब तक
तुम्हारे चेहरे पर
ख़ून की रवानी है
मेरी आँखों के ज़ख़्म
ताज़ा रहेंगे
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हमें जब अपना तआ'रुफ़ कराना पड़ता है
मैं तमाम गर्द-ओ-ग़ुबार हूँ मुझे मेरी सूरत-ए-हाल दे
हद्द-ए-बदन में मेरी ज़ात आ नहीं रही है
ये धड़कता हुआ दिल उस के हवाले कर दूँ
कुर्सी-ए-दिल पे तिरे जाते ही दर्द आ बैठे
क़िस्सा-ए-आदम में एक और ही वहदत पैदा कर ली है
महफ़िल में अब के आओ तो ऐसी ख़ता न हो
क्या बैठ जाएँ आन के नज़दीक आप के
ना-रसाई
जिस्म का कूज़ा है अपना और न ये दरिया-ए-जाँ
अभी नहीं कि अभी महज़ इस्तिआरा बना
ख़त बहुत उस के पढ़े हैं कभी देखा नहीं है