आ मुझे छू के हरा रंग बिछा दे मुझ पर
मैं भी इक शाख़ सी रखता हूँ शजर करने को
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मिट्टी की ये दीवार कहीं टूट न जाए
औरतें काम पे निकली थीं बदन घर रख कर
मिरे सारे बदन पर दूरियों की ख़ाक बिखरी है
किस सलीक़े से वो मुझ में रात-भर रह कर गया
रास्ता दे ऐ हुजूम-ए-शहर घर जाएँगे हम
मैं रोना चाहता हूँ ख़ूब रोना चाहता हूँ मैं
बहुत मुमकिन था हम दो जिस्म और इक जान हो जाते
आख़िर उस के हुस्न की मुश्किल को हल मैं ने किया
इश्क़ भी करना है हम को और ज़िंदा भी रहना है
महफ़िल में अब के आओ तो ऐसी ख़ता न हो
बिछड़े घर का साया
मैं जब कभी उस से पूछता हूँ कि यार मरहम कहाँ है मेरा