आँखों की प्यालियों में बारिश मची हुई है
सहरा में कोई मंज़र शादाब आ रहा है
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कुछ बताता नहीं क्या सानेहा कर बैठा है
बैज़ा-ए-नूर
वो जो इक शोर सा बरपा है अमल है मेरा
उस जगह जा के वो बैठा है भरी महफ़िल में
ये धड़कता हुआ दिल उस के हवाले कर दूँ
ख़ाना-साज़ उजाला मार
ऐ ख़ुदा मेरी रगों में दौड़ जा
मैं भी यहाँ हूँ इस की शहादत में किस को लाऊँ
हर गली कूचे में रोने की सदा मेरी है
बहुत सी आँखें लगीं हैं और एक ख़्वाब तय्यार हो रहा है
हम अपना इस्म ले कर शहर-ए-सिफ़त से निकले
कभी इस रौशनी की क़ैद से बाहर भी निकलो तुम