औरतें काम पे निकली थीं बदन घर रख कर
जिस्म ख़ाली जो नज़र आए तो मर्द आ बैठे
Wasi Shah
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Habib Jalib
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Gulzar
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देखो अभी लहू की इक धार चल रही है
मैं शहरी हूँ मगर मेरी बयाबानी नहीं जाती
जिस्म की क़ैद से सब रंग तुम्हारे निकल आए
अब दिल की तरफ़ दर्द की यलग़ार बहुत है
मैं बिछड़ों को मिलाने जा रहा हूँ
मोहब्बत फूल बनने पर लगी थी
अब देखता हूँ मैं तो वो अस्बाब ही नहीं
सब मिरा आब-ए-रवाँ किस के इशारों पे बहा जाता है
किसी हालत में भी तन्हा नहीं होने देती
हमेशा का ये मंज़र है कि सहरा जल रहा है
अभी नहीं कि अभी महज़ इस्तिआरा बना
साँसें ना-हमवार मिरी