ऐ सदफ़ सुन तुझे फिर याद दिला देता हूँ
मैं ने इक चीज़ तुझे दी थी गुहर करने को
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कूज़ा-गर
तू मुझ को जो इस शहर में लाया नहीं होता
मैं रोना चाहता हूँ ख़ूब रोना चाहता हूँ मैं
आँख भर देख लो ये वीराना
तराना-ए-रेख़्ता
आख़िर उस के हुस्न की मुश्किल को हल मैं ने किया
दिनी हैं सब कोई राती नहीं है
महफ़िल में अब के आओ तो ऐसी ख़ता न हो
कभी इस रौशनी की क़ैद से बाहर भी निकलो तुम
गुनाहों की धुँद
जिस्म की क़ैद से सब रंग तुम्हारे निकल आए
किस की है ये तस्वीर जो बनती नहीं मुझ से