ऐ ख़ुदा मेरी रगों में दौड़ जा
शाख़-ए-दिल पर इक हरी पत्ती निकाल
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जिस्म के पार वो दिया सा है
दिन ने इतना जो मरीज़ाना बना रक्खा है
तू फ़राहम न हो मुझ को ये है मर्ज़ी तेरी
हर गली कूचे में रोने की सदा मेरी है
ख़ूब होनी है अब इस शहर में रुस्वाई मिरी
पहले तो ज़रा सा हट के देखा
बीमार हो गया हूँ शिफा-ख़ाना चाहिए
जिस तरह पैदा हुए उस से जुदा पैदा करो
मेरे हर मिस्रे पे उस ने वस्ल का मिस्रा लगाया
साँप
रूह को तो इक ज़रा सी रौशनी दरकार है
किसी हालत में भी तन्हा नहीं होने देती