बड़ा वसीअ है उस के जमाल का मंज़र
वो आईने में तो बस मुख़्तसर सा रहता है
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हिज्र ओ विसाल चराग़ हैं दोनों तन्हाई के ताक़ों में
घर में चीज़ें बढ़ रही हैं ज़िंदगी कम हो रही है
इक हवा सा मिरे सीने से मिरा यार गया
है शोर साहिलों पर सैलाब आ रहा है
औरों ने उस गली से क्या क्या न कुछ ख़रीदा
मोहब्बत का सिला-कार-ए-मोहब्बत से नहीं मिलता
दिल ने इमदाद कभी हस्ब-ए-ज़रूरत नहीं दी
मुसलसल अश्क-बारी हो रही है
बे-रंग बड़े शहर की हस्ती भी वहीं थी
दिन ने इतना जो मरीज़ाना बना रक्खा है
मैं जब कभी उस से पूछता हूँ कि यार मरहम कहाँ है मेरा
हम को बरा-ए-दुनिया बे-जान कर दिया है