बन न पाया हीर, राँझा अब भी राँझा है बहुत
देख वारिस-शाह तेरी हीर आधी रह गई
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ऐ सदफ़ सुन तुझे फिर याद दिला देता हूँ
जिसे भी प्यास बुझानी हो मेरे पास रहे
ख़ुद से इंकार को हम-ज़ाद किया है मैं ने
दोनों का ला-शुऊ'र है इतना मिला हुआ
शुस्ता ज़बाँ शगुफ़्ता बयाँ होंठ गुल-फ़िशाँ
औरों ने उस गली से क्या क्या न कुछ ख़रीदा
सहरा के संगीन सफ़र में आब-रसानी कम न पड़े
फिर सोच के ये सब्र किया अहल-ए-हवस ने
ये बाग़ ज़िंदा रहे ये बहार ज़िंदा रहे
ब-रंग-ए-सब्ज़ा उन्ही साहिलों पे जम जाएँ
धूप बोली कि मैं आबाई वतन हूँ तेरा
सर सलामत लिए लौट आए गली से उस की