बस एक लम्स कि जल जाएँ सब ख़स-ओ-ख़ाशाक
इसे विसाल भी कहते हैं ख़ुश-बयानी में
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महफ़िल में अब के आओ तो ऐसी ख़ता न हो
मिरे शे'रों में फ़नकारी नहीं है
दर-अस्ल इस जहाँ को ज़रूरत नहीं मिरी
बिछड़े घर का साया
हमेशा का ये मंज़र है कि सहरा जल रहा है
ये धड़कता हुआ दिल उस के हवाले कर दूँ
आग़ाज़ की तारीख़
तुम नहीं माने
यही हिसाब-ए-मोहब्बत दोबारा कर के लाओ
हद्द-ए-बदन में मेरी ज़ात आ नहीं रही है
तू मुझ को जो इस शहर में लाया नहीं होता
क़िस्सा-ए-आदम में एक और ही वहदत पैदा कर ली है