बे-बदन रूह बने फिरते रहोगे कब तक
जाओ चुपके से किसी जिस्म में दाख़िल हो जाओ
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ख़ुद-आगही
मैं रोना चाहता हूँ ख़ूब रोना चाहता हूँ मैं
ज़मीं से अर्श तलक सिलसिला हमारा भी था
चराग़-ए-शहर से शम-ए-दिल-ए-सहरा जलाना
सब ने'मतें हैं शहर में इंसान ही नहीं
हमें जब अपना तआ'रुफ़ कराना पड़ता है
उस को है इश्क़ बताना भी नहीं चाहता है
फिर तुझे छू के देखता हूँ मैं
ख़लल आया न हक़ीक़त में न अफ़्साना बना
खड़ी है रात अंधेरों का अज़दहाम लगाए
जब उस को देखते रहने से थकने लगता हूँ
वा'दा