एक बार उस ने बुलाया था तो मसरूफ़ था मैं
जीते-जी फिर कभी बारी ही नहीं आई मिरी
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जिस्म का कूज़ा है अपना और न ये दरिया-ए-जाँ
वो चाँद कह के गया था कि आज निकलेगा
औरों का सारा काम मुझे दे दिया गया
पहले क़ब्रिस्तान आता है फिर अपनी बस्ती आती है
हमारी आँखों में बस गया है अजीब पंजाब आँसुओं का
औरतें काम पे निकली थीं बदन घर रख कर
जिस्म के पार वो दिया सा है
ख़लल आया न हक़ीक़त में न अफ़्साना बना
खड़ी है रात अंधेरों का अज़दहाम लगाए
जो इश्क़ चाहता है वो होना नहीं है आज
किस की है ये तस्वीर जो बनती नहीं मुझ से
ख़ाक ओ ख़ूँ की नई तंज़ीम में शामिल हो जाओ