कौन सी ऐसी ख़ुशी है जो मिली हो एक बार
और ता-उम्र हमें जिस ने अज़िय्यत नहीं दी
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हमें जब अपना तआरुफ़ कराना पड़ता है
साँसें ना-हमवार मिरी
ख़ूब होनी है अब इस शहर में रुस्वाई मिरी
बहुत मुमकिन था हम दो जिस्म और इक जान हो जाते
किसी हालत में भी तन्हा नहीं होने देती
बन न पाया हीर, राँझा अब भी राँझा है बहुत
ऐ सदफ़ सुन तुझे फिर याद दिला देता हूँ
मैं जब कभी उस से पूछता हूँ कि यार मरहम कहाँ है मेरा
जिस्म की क़ैद से सब रंग तुम्हारे निकल आए
ना-रसाई
तराना-ए-रेख़्ता
हर गली कूचे में रोने की सदा मेरी है