किस की है ये तस्वीर जो बनती नहीं मुझ से
मैं किस का तक़ाज़ा हूँ कि पूरा नहीं होता
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जिस्म की क़ैद से सब रंग तुम्हारे निकल आए
तिरे होंटों के सहरा में तिरी आँखों के जंगल में
पेश-ओ-पस
तमाम शहर की आँखों में रेज़ा रेज़ा हूँ
अगर मैं चीख़ूँ
हम ने परिंद-ए-वस्ल के पर काट डाले हैं
क्या बदन है कि ठहरता ही नहीं आँखों में
गुनाहों की धुँद
मोहब्बत का सिला-कार-ए-मोहब्बत से नहीं मिलता
वो जो इक शोर सा बरपा है अमल है मेरा
मैं भी यहाँ हूँ इस की शहादत में किस को लाऊँ
मेरे हर मिस्रे पे उस ने वस्ल का मिस्रा लगाया