किसी हालत में भी तन्हा नहीं होने देती
है यही एक ख़राबी मिरी तन्हाई की
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दुनिया को कहाँ तक जाना है
जिसे भी प्यास बुझानी हो मेरे पास रहे
उस तरफ़ तू तिरी यकताई है
हम अपना इस्म ले कर शहर-ए-सिफ़त से निकले
मामूल
पहले तो ज़रा सा हट के देखा
मेरी कोई तारीफ़ नहीं है मैं वक़्फ़ों वक़्फ़ों में हूँ
तह-ए-बदन कहीं बेदार होता जाता हूँ
औरतें काम पे निकली थीं बदन घर रख कर
हमेशा का ये मंज़र है कि सहरा जल रहा है
कुछ बताता नहीं क्या सानेहा कर बैठा है
लोग यूँ जाते नज़र आते हैं मक़्तल की तरफ़