क्या बदन है कि ठहरता ही नहीं आँखों में
बस यही देखता रहता हूँ कि अब क्या होगा
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हर गली कूचे में रोने की सदा मेरी है
अभी नहीं कि अभी महज़ इस्तिआरा बना
ये सारे ख़ूबसूरत जिस्म अभी मर जाने वाले हैं
हमेशा का ये मंज़र है कि सहरा जल रहा है
जिस्म की क़ैद से सब रंग तुम्हारे निकल आए
चराग़-ए-शहर से शम-ए-दिल-ए-सहरा जलाना
मौत ही एक दवा है और वो जारी है
हिज्र ओ विसाल चराग़ हैं दोनों तन्हाई के ताक़ों में
सब के जैसी न बना ज़ुल्फ़ कि हम सादा-निगाह
ख़िलाफ़-ए-गर्दिश-ए-मा'मूल होना चाहता हूँ
मेरी इक उम्र और इक अहद की तारीख़ रक़म है जिस पर