लोग यूँ जाते नज़र आते हैं मक़्तल की तरफ़
मसअले जैसे रवाना हों किसी हल की तरफ़
Ahmad Faraz
Rahat Indori
Mohsin Naqvi
Parveen Shakir
Gulzar
Jaun Eliya
Wasi Shah
Faiz Ahmad Faiz
Mir Taqi Mir
Javed Akhtar
Habib Jalib
Anwar Masood
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अभी नहीं कि अभी महज़ इस्तिआरा बना
वो चाँद कह के गया था कि आज निकलेगा
हर गली कूचे में रोने की सदा मेरी है
हमवारी
दबा पड़ा है कहीं दश्त में ख़ज़ाना मिरा
रक़्स-ए-इल्हाम कर रहा हूँ
मुसलसल अश्क-बारी हो रही है
शेर कह लेने के बाद
घर में चीज़ें बढ़ रही हैं ज़िंदगी कम हो रही है
उम्र बे-वज्ह गुज़ारे भी नहीं जा सकते
तुम नहीं माने
अहल-ए-बदन को इश्क़ है बाहर की कोई चीज़