मैं भी यहाँ हूँ इस की शहादत में किस को लाऊँ
मुश्किल ये है कि आप हूँ अपनी नज़ीर मैं
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तिरे होंटों के सहरा में तिरी आँखों के जंगल में
घर बनाने में तमाम अहल-ए-सफ़र लग गए हैं
इस तरह आता हूँ बाज़ारों के बीच
हम अपने आप को अपने से कम भी करते रहते हैं
रक़्स-ए-इल्हाम कर रहा हूँ
ख़िलाफ़-ए-गर्दिश-ए-मा'मूल होना चाहता हूँ
महफ़िल में अब के आओ तो ऐसी ख़ता न हो
बहुत ज़मीन बहुत आसमाँ मिलेंगे तुम्हें
जिस्म की क़ैद से सब रंग तुम्हारे निकल आए
तुझे ख़बर हो तो बोल ऐ मिरे सितारा-ए-शब
उधर वो दश्त-ए-मुसलसल इधर मुसलसल मैं
उम्र बे-वज्ह गुज़ारे भी नहीं जा सकते