मैं बिछड़ों को मिलाने जा रहा हूँ
चलो दीवार ढाने जा रहा हूँ
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गर अपने आप में इंसान बढ़ता जा रहा है
ख़लल आया न हक़ीक़त में न अफ़्साना बना
असीर-ए-ख़ाक भी हूँ ख़ाक से रिहा भी हूँ मैं
तेरा भला हो तू जो समझता है मुझ को ग़ैर
चाकरी में रह के इस दुनिया की मोहमल हो गए थे
लोग यूँ जाते नज़र आते हैं मक़्तल की तरफ़
उस तरफ़ तू तिरी यकताई है
मुसलसल अश्क-बारी हो रही है
बैज़ा-ए-नूर
वो जो इक शोर सा बरपा है अमल है मेरा
ऐ सदफ़ सुन तुझे फिर याद दिला देता हूँ
उम्र बे-वज्ह गुज़ारे भी नहीं जा सकते