मिट्टी की ये दीवार कहीं टूट न जाए
रोको कि मिरे ख़ून की रफ़्तार बहुत है
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सख़्त तकलीफ़ उठाई है तुझे जानने में
ब-रंग-ए-सब्ज़ा उन्ही साहिलों पे जम जाएँ
मुसलसल अश्क-बारी हो रही है
देखो अभी लहू की इक धार चल रही है
बचा के लाएँ किसी भी यतीम बच्चे को
महफ़िल में अब के आओ तो ऐसी ख़ता न हो
झगड़े ख़ुदा से हो गए अहद-ए-शबाब में
पेश-ओ-पस
चाकरी में रह के इस दुनिया की मोहमल हो गए थे
बदन और रूह में झगड़ा पड़ा है
तहरीर की फ़ुर्सत
मेरी मिट्टी का नसब बे-सर-ओ-सामानी से