मोहब्बत फूल बनने पर लगी थी
पलट कर फिर कली कर ली है मैं ने
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जिस्म का कूज़ा है अपना और न ये दरिया-ए-जाँ
मामूल
तभी वहीं मुझे उस की हँसी सुनाई पड़ी
ख़िलाफ़-ए-गर्दिश-ए-मा'मूल होना चाहता हूँ
किस सलीक़े से वो मुझ में रात-भर रह कर गया
शुस्ता ज़बाँ शगुफ़्ता बयाँ होंठ गुल-फ़िशाँ
बचा के लाएँ किसी भी यतीम बच्चे को
हमें जब अपना तआ'रुफ़ करना पड़ता है
सहरा के संगीन सफ़र में आब-रसानी कम न पड़े
गर अपने आप में इंसान बढ़ता जा रहा है
साँप
अब देखता हूँ मैं तो वो अस्बाब ही नहीं