फिर सोच के ये सब्र किया अहल-ए-हवस ने
बस एक महीना ही तो रमज़ान रहेगा
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ईमाँ का लुत्फ़ पहलू-ए-तश्कीक में मिला
ख़त बहुत उस के पढ़े हैं कभी देखा नहीं है
रूह को तो इक ज़रा सी रौशनी दरकार है
उस से मिलने के लिए जाए तो क्या जाए कोई
एक ग़ज़ल कहते हैं इक कैफ़िय्यत तारी कर लेते हैं
ये धड़कता हुआ दिल उस के हवाले कर दूँ
मेरी इक उम्र और इक अहद की तारीख़ रक़म है जिस पर
कैसी बला-ए-जाँ है ये मुझ को बदन किए हुए
मैं भी यहाँ हूँ इस की शहादत में किस को लाऊँ
वहाँ मैं जाऊँ मगर कुछ मिरा भला भी तो हो
उस तरफ़ तू तिरी यकताई है
हमारी आँखों में बस गया है अजीब पंजाब आँसुओं का