फिर तुझे छू के देखता हूँ मैं
फिर से क़िंदील सी जलाई है
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सब लज़्ज़तें विसाल की बेकार करते हो
घर बनाने में तमाम अहल-ए-सफ़र लग गए हैं
हम अपना इस्म ले कर शहर-ए-सिफ़त से निकले
तुझे ख़बर हो तो बोल ऐ मिरे सितारा-ए-शब
बहुत मुमकिन था हम दो जिस्म और इक जान हो जाते
ख़ाना-साज़ उजाला मार
कुर्सी-ए-दिल पे तिरे जाते ही दर्द आ बैठे
ऐ ख़ुदा मेरी रगों में दौड़ जा
उस तरफ़ तू तिरी यकताई है
बीमार हो गया हूँ शिफा-ख़ाना चाहिए
हिज्र ओ विसाल चराग़ हैं दोनों तन्हाई के ताक़ों में